7 अक्टूबर 1907 को रिटायर्ड जज पं0 बाँके बिहारी लाल नागर की सुपुत्री रूप में इलाहाबाद में दुर्गा देवी का जन्म हुआ। कुछ समय पश्चात ही पिताजी सन्यासी हो गये और बचपन में ही माँ भी गुजर गयीं। दुर्गा देवी का लालन-पालन उनकी चाची ने किया। जब दुर्गा देवी कक्षा 5वीं की छात्रा थीं तो मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह भगवतीचरण वोहरा से हो गया, जो कि लाहौर के पंडित शिवचरण लाल वोहरा के पुत्र थे। दुर्गा देवी के पति भगवतीचरण वोहरा 1921 के असहयोग आन्दोलन में काफी सक्रिय रहे और लगभग एक ही साथ भगतसिंह, धनवन्तरी और भगवतीचरण ने पढ़ाई बीच में ही छोड़कर देश सेवा में जुट जाने का संकल्प लिया। असहयोग आन्दोलन के दिनों में गाँधी जी से प्रभावित होकर दुर्गा देवी और उनके पति स्वयं खादी के कपड़े पहनते और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करते। असहयोग आन्दोलन जब अपने चरम पर था, ऐसे में चौरी-चौरा काण्ड के बाद अकस्मात इसको वापस ले लिया जाना नौजवान क्रान्तिकारियों को उचित न लगा और वे स्वयं अपना संगठन बनाने की ओर प्रेरित हुये। असहयोग आन्दोलन के बाद भगवतीचरण वोहरा ने लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित नेशनल कालेज से 1923 में बी0ए0 की परीक्षा उतीर्ण की। दुर्गा देवी ने इसी दौरान प्रभाकर की परीक्षा उतीर्ण की।
1924 में तमाम क्रान्तिकारी 'कानपुर सम्मेलन' के बहाने इकट्ठा हुये और भावी क्रान्तिकारी गतिविधियों की योजना बनायी। इसी के फलस्वरूप 1928 में 'हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन' का गठन किया गया, जो कि बाद में 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन' में परिवर्तित हो गया। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, भगवतीचरण वोहरा, बटुकेश्वर दत्त, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे तमाम क्रान्तिकारियों ने इस दौरान अपनी जान हथेली पर रखकर अंग्रेजी सरकार को कड़ी चुनौती दी। भगवतीचरण वोहरा के लगातार क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय होने के साथ-साथ दुर्गा देवी भी पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रहीं। 3 दिसम्बर 1925 को अपने प्रथम व एकमात्र पुत्र के जन्म पर दुर्गा देवी ने उसका नाम प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के नाम पर शचीन्द्रनाथ वोहरा रखा।
वक्त के साथ दुर्गा देवी क्रान्तिकारियों की लगभग हर गुप्त बैठक का हिस्सा बनती गयीं। इसी दौरान वे तमाम क्रातिकारियों के सम्पर्क में आईं। कभी-कभी जब नौजवान क्रान्तिकारी किसी समस्या का हल नहीं ढूँढ़ पाते थे तो शान्तचित्त होकर उन्हें सुनने वाली दुर्गा देवी कोई नया आइडिया बताती थीं। यही कारण था कि वे क्रान्तिकारियों में बहुत लोकप्रिय और 'दुर्गा भाभी' के नाम से प्रसिद्ध थीं। महिला होने के चलते पुलिस उन पर जल्दी शक नहीं करती थी, सो वे गुप्त सूचनायें एकत्र करने से लेकर गोला-बारूद तथा क्रान्तिकारी साहित्य व पर्चे एक जगह से दूसरी जगह ले जाने हेतु क्रान्तिकारियों की काफी सहायता करती थीं। 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा देवी ने ही की। बैठक में अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जे0 ए0 स्काट को मारने का जिम्मा वे खुद लेना चाहती थीं, पर संगठन ने उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी।
8 अप्रैल 1929 को सरदार भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ आजादी की गूँज सुनाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय विधान सभा भवन में खाली बेंचों पर बम फेंका और कहा कि -''बधिरों को सुनाने के लिए अत्यधिक कोलाहल करना पड़ता है।'' इस घटना से अंग्रेजी सरकार अन्दर तक हिल गयी और आनन-फानन में 'साण्डर्स हत्याकाण्ड' से भगत सिंह इत्यादि का नाम जोड़कर फांसी की सजा सुना दी। भगत सिंह को फांसी की सजा क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिये बड़ा सदमा थी। अत: क्रान्तिकारियों ने भगत सिंह को छुड़ाने के लिये तमाम प्रयास किये। मई 1930 में इस हेतु सेन्ट्रल जेल लाहौर के पास बहावलपुर मार्ग पर एक घर किराये पर लिया गया, पर इन्हीं प्रयासों के दौरान लाहौर में रावी तट पर 28 मई 1930 को बम का परीक्षण करते समय दुर्गा देवी के पति भगवतीचरण वोहरा आकस्मिक विस्फोट से शहीद हो गये। इस घटना से दुर्गा देवी की जिन्दगी में अंधेरा सा छा गया, पर वे अपने पति और अन्य क्रान्तिकारियों की शहादत को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहती थीं। अत: इससे उबरकर वे पुन: क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गईं।
लाहौर व दिल्ली षडयंत्र मामलों में पुलिस ने पहले से ही दुर्गा देवी के विरुद्ध वारण्ट जारी कर रखा था। ऐसे में जब क्रान्तिकारियों ने बम्बई के गवर्नर मेल्कम हेली को मारने की रणनीति बनायी, तो दुर्गा देवी अग्रिम पंक्ति में रहीं। 9 अक्टूबर 1930 को इस घटनाक्रम में हेली को मारने की रणनीति तो सफल नहीं हुयी पर लैमिग्टन रोड पर पुलिस स्टेशन के सामने अंग्रेज सार्जेन्ट टेलर को दुर्गा देवी ने अवश्य गोली चलाकर घायल कर दिया। क्रान्तिकारी गतिविधियों से पहले से ही परेशान अंग्रेज सरकार ने इस केस में दुर्गा देवी सहित 15 लोगों के नाम वारण्ट जारी कर दिया, जिसमें 12 लोग गिरफ्तार हुये पर दुर्गा देवी, सुखदेव लाल व पृथ्वीसिंह फरार हो गये। अन्तत: अंग्रेजी सरकार ने मुख्य अभियुक्तों के पकड़ में न आने के कारण 4 मई 1931 को यह मुकदमा ही उठा लिया। मुकदमा उठते ही दुर्गा देवी पुन: सक्रिय हो गयीं और शायद अंग्रेजी सरकार को भी इसी का इन्तजार था। अन्तत: 12 सितम्बर 1931 को लाहौर में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, पर उस समय तक लाहौर व दिल्ली षड्यंत्र मामले खत्म हो चुके थे और लैमिग्टन रोड केस भी उठाया जा चुका था, अत: कोई ठोस आधार न मिलने पर 15 दिन बाद मजिस्ट्रेट ने उन्हें रिहा करने के आदेश दे दिये। अंग्रेजी सरकार चूँकि दुर्गा देवी की क्रान्तिकारी गतिविधियों से वाकिफ थी, अत: उनकी गतिविधियों को निष्क्रिय करने के लिये रिहाई के तत्काल बाद उन्हें 6 माह और पुन: 6 माह हेतु नजरबंद कर दिया। दिसम्बर 1932 में अंग्रेजी सरकार ने पुन: उन्हें 3 साल तक लाहौर नगर की सीमा में नजरबंद रखा।
तीन साल की लम्बी नजर बन्दी के बाद जब दुर्गा देवी रिहा हुयीं तो 1936 में दिल्ली से सटे गाजियाबाद के प्यारेलाल गर्ल्स स्कूल में लगभग एक वर्ष तक अध्यापक की नौकरी की। 1937 में वे जबरदस्त रूप से बीमार पड़ी और दिल्ली की हरिजन बस्ती में स्थित सैनीटोरियम में उन्होंने अपनी बीमारी का इलाज कराया। उस समय तक विभिन्न प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी और इसी दौरान 1937 में ही दुर्गा देवी ने भी कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर राजनीति में अपनी सक्रियता पुन: आरम्भ की। अंग्रेज अफसर टेलर को मारने के बाद फरार रहने के दौरान ही उनकी मुलाकात महात्मा गाँधी से हो चुकी थी। 1937 में वे प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी दिल्ली की अध्यक्षा चुनी गयीं एवं 1938 में कांग्रेस द्वारा आयोजित हड़ताल में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। 1938 के अन्त में उन्होंने अपना ठिकाना लखनऊ में बनाया और अपनी कांग्रेस सदस्यता उत्तर प्रदेश स्थानान्तरित कराकर यहाँ सक्रिय हुयीं। सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में आयोजित जनवरी 1939 के त्रिपुरी (मध्यप्रदेश) के कांग्रेस अधिवेशन में दुर्गा देवी ने पूर्वांचल स्थित आजमगढ़ जनपद की प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।
दुर्गा देवी का झुकाव राजनीति के साथ-साथ समाज सेवा और अध्यापन की ओर भी था। 1939 में उन्होंने अड्यार, मद्रास में मांटेसरी शिक्षा पद्धति का प्रशिक्षण ग्रहण किया और लखनऊ आकर जुलाई 1940 में शहर के प्रथम मांटेसरी स्कूल की स्थापना की, जो वर्तमान में इण्टर कालेज के रूप में तब्दील हो चुका है। मांटेसरी स्कूल, लखनऊ की प्रबन्ध समिति में तो आचार्य नरेन्द्र देव, रफी अहमद किदवई व चन्द्रभानु गुप्ता जैसे दिग्गज शामिल रहे। 1940 के बाद दुर्गा देवी ने राजनीति से किनारा कर लिया पर समाज सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को काफी सराहा गया।
दुर्गा देवी ने सदैव से क्रान्तिकारियों के साथ कार्य किया था और उनके पति की दर्दनाक मौत भी एक क्रान्तिकारी गतिविधि का ही परिणाम थी। क्रान्तिकारियों के तेवरों से परे उनके दुख-दर्द और कठिनाइयों को नजदीक से देखने व महसूस करने वाली दुर्गा देवी ने जीवन के अन्तिम वर्षों में अपने निवास को "शहीद स्मारक शोध केन्द्र" में तब्दील कर दिया। इस केन्द्र में उन शहीदों के चित्र, विवरण व साहित्य मौजूद हैं, जिन्होंने राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुये या तो अपने को कुर्बान कर दिया अथवा राष्ट्रभक्ति के समक्ष अपने हितों को तिलांजलि दे दी। एक तरह से दुर्गा देवी की यह शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि थी तो आगामी पीढ़ियों को आजादी की यादों से जोड़ने का सत्साहस भरा जुनून भी। पारिवारिक गतिविधियों से लेकर क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, शिक्षाविद् और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में आजीवन सक्रिय दुर्गा देवी 92 साल की आयु में 14 अक्टूबर 1999 को इस संसार को अलविदा कह गयीं।
दुर्गा देवी उन विरले लोगों में से थीं जिन्होंने गाँधी जी के दौर से लेकर क्रान्तिकारी गतिविधियों तक को नजदीक से देखा, पराधीन भारत को स्वाधीन होते देखा, राष्ट्र की प्रगति व विकास को स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के दौर के साथ देखा........ आज दुर्गा देवी हमारे बीच नहीं हैं, पर वर्ष 2007-08 उनकी जन्म-शताब्दी का वर्ष है और हमें उनके सपनों, मूल्यों और जज्बातों का अहसास करा रहा है। आज देश के विभिन्न क्षेत्रों में तमाम महिलायें अपनी गतिविधियों से नाम कमा रही हैं, पर दुर्गा देवी ने तो उस दौर में अलख जगायी जब महिलाओं की भूमिका प्राय: घर की चारदीवारियों तक ही सीमित थी। यह राष्ट्र के लिये गौरव का विषय है कि वर्ष 2007-08 दुर्गा देवी के साथ-साथ भगत सिंह और सुखदेव का भी जन्म-शताब्दी वर्ष है। बहुत कम ही लोगों को पता होगा कि एक ही वर्ष की विभिन्न तिथियों में जन्मतिथि पड़ने के बावजूद भगतसिंह अपना जन्मदिन दुर्गा देवी के जन्मदिन पर उन्हीं के साथ मनाते थे और उनके पति भगवतीचरण वोहरा सहित तमाम क्रान्तिकारी इस अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते थे। ऐसे वीरों की शहादत को शत्-शत् नमन.....
1924 में तमाम क्रान्तिकारी 'कानपुर सम्मेलन' के बहाने इकट्ठा हुये और भावी क्रान्तिकारी गतिविधियों की योजना बनायी। इसी के फलस्वरूप 1928 में 'हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन' का गठन किया गया, जो कि बाद में 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन' में परिवर्तित हो गया। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, भगवतीचरण वोहरा, बटुकेश्वर दत्त, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे तमाम क्रान्तिकारियों ने इस दौरान अपनी जान हथेली पर रखकर अंग्रेजी सरकार को कड़ी चुनौती दी। भगवतीचरण वोहरा के लगातार क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय होने के साथ-साथ दुर्गा देवी भी पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रहीं। 3 दिसम्बर 1925 को अपने प्रथम व एकमात्र पुत्र के जन्म पर दुर्गा देवी ने उसका नाम प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के नाम पर शचीन्द्रनाथ वोहरा रखा।
वक्त के साथ दुर्गा देवी क्रान्तिकारियों की लगभग हर गुप्त बैठक का हिस्सा बनती गयीं। इसी दौरान वे तमाम क्रातिकारियों के सम्पर्क में आईं। कभी-कभी जब नौजवान क्रान्तिकारी किसी समस्या का हल नहीं ढूँढ़ पाते थे तो शान्तचित्त होकर उन्हें सुनने वाली दुर्गा देवी कोई नया आइडिया बताती थीं। यही कारण था कि वे क्रान्तिकारियों में बहुत लोकप्रिय और 'दुर्गा भाभी' के नाम से प्रसिद्ध थीं। महिला होने के चलते पुलिस उन पर जल्दी शक नहीं करती थी, सो वे गुप्त सूचनायें एकत्र करने से लेकर गोला-बारूद तथा क्रान्तिकारी साहित्य व पर्चे एक जगह से दूसरी जगह ले जाने हेतु क्रान्तिकारियों की काफी सहायता करती थीं। 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा देवी ने ही की। बैठक में अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जे0 ए0 स्काट को मारने का जिम्मा वे खुद लेना चाहती थीं, पर संगठन ने उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी।
8 अप्रैल 1929 को सरदार भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ आजादी की गूँज सुनाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय विधान सभा भवन में खाली बेंचों पर बम फेंका और कहा कि -''बधिरों को सुनाने के लिए अत्यधिक कोलाहल करना पड़ता है।'' इस घटना से अंग्रेजी सरकार अन्दर तक हिल गयी और आनन-फानन में 'साण्डर्स हत्याकाण्ड' से भगत सिंह इत्यादि का नाम जोड़कर फांसी की सजा सुना दी। भगत सिंह को फांसी की सजा क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिये बड़ा सदमा थी। अत: क्रान्तिकारियों ने भगत सिंह को छुड़ाने के लिये तमाम प्रयास किये। मई 1930 में इस हेतु सेन्ट्रल जेल लाहौर के पास बहावलपुर मार्ग पर एक घर किराये पर लिया गया, पर इन्हीं प्रयासों के दौरान लाहौर में रावी तट पर 28 मई 1930 को बम का परीक्षण करते समय दुर्गा देवी के पति भगवतीचरण वोहरा आकस्मिक विस्फोट से शहीद हो गये। इस घटना से दुर्गा देवी की जिन्दगी में अंधेरा सा छा गया, पर वे अपने पति और अन्य क्रान्तिकारियों की शहादत को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहती थीं। अत: इससे उबरकर वे पुन: क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गईं।
लाहौर व दिल्ली षडयंत्र मामलों में पुलिस ने पहले से ही दुर्गा देवी के विरुद्ध वारण्ट जारी कर रखा था। ऐसे में जब क्रान्तिकारियों ने बम्बई के गवर्नर मेल्कम हेली को मारने की रणनीति बनायी, तो दुर्गा देवी अग्रिम पंक्ति में रहीं। 9 अक्टूबर 1930 को इस घटनाक्रम में हेली को मारने की रणनीति तो सफल नहीं हुयी पर लैमिग्टन रोड पर पुलिस स्टेशन के सामने अंग्रेज सार्जेन्ट टेलर को दुर्गा देवी ने अवश्य गोली चलाकर घायल कर दिया। क्रान्तिकारी गतिविधियों से पहले से ही परेशान अंग्रेज सरकार ने इस केस में दुर्गा देवी सहित 15 लोगों के नाम वारण्ट जारी कर दिया, जिसमें 12 लोग गिरफ्तार हुये पर दुर्गा देवी, सुखदेव लाल व पृथ्वीसिंह फरार हो गये। अन्तत: अंग्रेजी सरकार ने मुख्य अभियुक्तों के पकड़ में न आने के कारण 4 मई 1931 को यह मुकदमा ही उठा लिया। मुकदमा उठते ही दुर्गा देवी पुन: सक्रिय हो गयीं और शायद अंग्रेजी सरकार को भी इसी का इन्तजार था। अन्तत: 12 सितम्बर 1931 को लाहौर में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, पर उस समय तक लाहौर व दिल्ली षड्यंत्र मामले खत्म हो चुके थे और लैमिग्टन रोड केस भी उठाया जा चुका था, अत: कोई ठोस आधार न मिलने पर 15 दिन बाद मजिस्ट्रेट ने उन्हें रिहा करने के आदेश दे दिये। अंग्रेजी सरकार चूँकि दुर्गा देवी की क्रान्तिकारी गतिविधियों से वाकिफ थी, अत: उनकी गतिविधियों को निष्क्रिय करने के लिये रिहाई के तत्काल बाद उन्हें 6 माह और पुन: 6 माह हेतु नजरबंद कर दिया। दिसम्बर 1932 में अंग्रेजी सरकार ने पुन: उन्हें 3 साल तक लाहौर नगर की सीमा में नजरबंद रखा।
तीन साल की लम्बी नजर बन्दी के बाद जब दुर्गा देवी रिहा हुयीं तो 1936 में दिल्ली से सटे गाजियाबाद के प्यारेलाल गर्ल्स स्कूल में लगभग एक वर्ष तक अध्यापक की नौकरी की। 1937 में वे जबरदस्त रूप से बीमार पड़ी और दिल्ली की हरिजन बस्ती में स्थित सैनीटोरियम में उन्होंने अपनी बीमारी का इलाज कराया। उस समय तक विभिन्न प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी और इसी दौरान 1937 में ही दुर्गा देवी ने भी कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर राजनीति में अपनी सक्रियता पुन: आरम्भ की। अंग्रेज अफसर टेलर को मारने के बाद फरार रहने के दौरान ही उनकी मुलाकात महात्मा गाँधी से हो चुकी थी। 1937 में वे प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी दिल्ली की अध्यक्षा चुनी गयीं एवं 1938 में कांग्रेस द्वारा आयोजित हड़ताल में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। 1938 के अन्त में उन्होंने अपना ठिकाना लखनऊ में बनाया और अपनी कांग्रेस सदस्यता उत्तर प्रदेश स्थानान्तरित कराकर यहाँ सक्रिय हुयीं। सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में आयोजित जनवरी 1939 के त्रिपुरी (मध्यप्रदेश) के कांग्रेस अधिवेशन में दुर्गा देवी ने पूर्वांचल स्थित आजमगढ़ जनपद की प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।
दुर्गा देवी का झुकाव राजनीति के साथ-साथ समाज सेवा और अध्यापन की ओर भी था। 1939 में उन्होंने अड्यार, मद्रास में मांटेसरी शिक्षा पद्धति का प्रशिक्षण ग्रहण किया और लखनऊ आकर जुलाई 1940 में शहर के प्रथम मांटेसरी स्कूल की स्थापना की, जो वर्तमान में इण्टर कालेज के रूप में तब्दील हो चुका है। मांटेसरी स्कूल, लखनऊ की प्रबन्ध समिति में तो आचार्य नरेन्द्र देव, रफी अहमद किदवई व चन्द्रभानु गुप्ता जैसे दिग्गज शामिल रहे। 1940 के बाद दुर्गा देवी ने राजनीति से किनारा कर लिया पर समाज सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को काफी सराहा गया।
दुर्गा देवी ने सदैव से क्रान्तिकारियों के साथ कार्य किया था और उनके पति की दर्दनाक मौत भी एक क्रान्तिकारी गतिविधि का ही परिणाम थी। क्रान्तिकारियों के तेवरों से परे उनके दुख-दर्द और कठिनाइयों को नजदीक से देखने व महसूस करने वाली दुर्गा देवी ने जीवन के अन्तिम वर्षों में अपने निवास को "शहीद स्मारक शोध केन्द्र" में तब्दील कर दिया। इस केन्द्र में उन शहीदों के चित्र, विवरण व साहित्य मौजूद हैं, जिन्होंने राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुये या तो अपने को कुर्बान कर दिया अथवा राष्ट्रभक्ति के समक्ष अपने हितों को तिलांजलि दे दी। एक तरह से दुर्गा देवी की यह शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि थी तो आगामी पीढ़ियों को आजादी की यादों से जोड़ने का सत्साहस भरा जुनून भी। पारिवारिक गतिविधियों से लेकर क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, शिक्षाविद् और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में आजीवन सक्रिय दुर्गा देवी 92 साल की आयु में 14 अक्टूबर 1999 को इस संसार को अलविदा कह गयीं।
दुर्गा देवी उन विरले लोगों में से थीं जिन्होंने गाँधी जी के दौर से लेकर क्रान्तिकारी गतिविधियों तक को नजदीक से देखा, पराधीन भारत को स्वाधीन होते देखा, राष्ट्र की प्रगति व विकास को स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के दौर के साथ देखा........ आज दुर्गा देवी हमारे बीच नहीं हैं, पर वर्ष 2007-08 उनकी जन्म-शताब्दी का वर्ष है और हमें उनके सपनों, मूल्यों और जज्बातों का अहसास करा रहा है। आज देश के विभिन्न क्षेत्रों में तमाम महिलायें अपनी गतिविधियों से नाम कमा रही हैं, पर दुर्गा देवी ने तो उस दौर में अलख जगायी जब महिलाओं की भूमिका प्राय: घर की चारदीवारियों तक ही सीमित थी। यह राष्ट्र के लिये गौरव का विषय है कि वर्ष 2007-08 दुर्गा देवी के साथ-साथ भगत सिंह और सुखदेव का भी जन्म-शताब्दी वर्ष है। बहुत कम ही लोगों को पता होगा कि एक ही वर्ष की विभिन्न तिथियों में जन्मतिथि पड़ने के बावजूद भगतसिंह अपना जन्मदिन दुर्गा देवी के जन्मदिन पर उन्हीं के साथ मनाते थे और उनके पति भगवतीचरण वोहरा सहित तमाम क्रान्तिकारी इस अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते थे। ऐसे वीरों की शहादत को शत्-शत् नमन.....
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