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Samrat Hem Chandra Vikramaditya, also known as Hem Chandra Bhargava or Hemu Vikramaditya or simply Hemu (Hindi: सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य) (1501-1556) was a Hindu Emperor of India during the 1500s. He fought Afghan rebels[1][2] across North India from the Punjab to Bengal[3] and the Mughal forces of Akbar and Humayun in Agra and Delhi,[4] winning 22 battles without a single setback.[5][6][7][8] He assumed the title of Vikramaditya after acceding to the throne of Delhi[9] This was one of the crucial periods in Indian history, when the Mughals and Afghans were desperately vying for power. The son of a food seller, and himself a vendor of saltpetre at Rewari,[10] he rose to become Chief of Army and Prime Minister[11][12] under the command of Adil Shah Suri of the Suri Dynasty. He acceded to the throne of Delhi on October 7, 1556.[13] His Rajyabhishek or coronation was at Purana Quila in Delhi, where he was bestowed the title of Samrat.[9] Hemu re-established the Hindu Kingdom (albeit for a short duration) after over 350 years.[13] Hemu struck coins, bearing his title.[14]
Hemu was born at Machheri village of Alwar District in Rajasthan in the year 1501.[15] His father Rai Puran Das, a Brahmin,[16] was engaged in Purohiti,[15] the performing of Hindu religious ceremonies as a profession. However, due to persecution of Hindus, who performed religious ceremonies, by Mughals, Rai Puran Das could not make both ends meet as a Purohit, therefore he gave up Purohiti and moved to Qutabpur (now Hemu Nagar) in Rewari in Mewat,what is present day Haryana. Hemu's father started trading (breaking the caste barrier) in salt in Qutabpur, and Hemu was brought up and educated there.[17]
Apart from learning Sanskrit and Hindi, he was educated in Persian, Arabic and Arithmetic.[18] During his childhood, he was fond of exercise and Kushti (Wrestling) and while crushing salt in an Imam Dasta (an iron pot and hammer), he would monitor his strength.[17] He trained in horse-riding at his friend Sehdev's village. His friend Sehdev was a Rajput[17] and he participated in all the battles which Hemu fought later,[17] except the Second Battle of Panipat. Hemu was brought up in religious environment; his father was a member of Vallabh Sampradai of Vrindavan and visited various Teerth (religious sites)[18] as far as Sindh in present Pakistan।
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डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ने हिंदी के वैश्वीकरण और हिंदी के उन्नयन की दिशा में सजग, सक्रिय और ईमानदार प्रयास किए। भारतीय राजदूत के रूप में उन्होंने ब्रिटेन में भारतीयता को पुष्पित करने का प्रयास तो किया ही, अपने देश की भाषा के माध्यम से न केवल प्रवासियों अपितु विदेशियों को भी भारतीयता से जोड़ने की कोशिश की। वे संस्कृतियों के मध्य सेतु की तरह अडिग और सदा सक्रिय रहे। वे भारतीय संस्कृति के राजदूत, ब्रिटेन में हिन्दी के प्रणेता और हिंदी-भाषियों के लिए प्रेरणा स्रोत थे। विश्व भर में फैले भारत वंशियों के लिए प्रवासी भारतीय दिवस">प्रवासी भारतीय दिवस मनाने की संकल्पना डॉ. सिंघवी की ही थी। वे साहित्य अमृत के संपादक रहे और अपने संपादन काल में उन्होने श्री विद्यानिवास मिश्र की स्वस्थ साहित्यिक परंपरा को गति प्रदान की। भारतीय ज्ञानपीठ">भारतीय ज्ञानपीठ को भी श्री सिंघवी की सेवाएँ सदैव स्मरण रहेंगी।[२]
भारतीय डायसपोरा की अनेक संस्थाओं के अध्यक्ष श्री सिंघवी ने अनेक पुस्तकों की रचना भी की है। वे कई कला तथा सांस्कृतिक संगठनों के संरक्षक भी थे। जैन इतिहास और संस्कृति के जानकार के रूप में मशहूर श्री सिंघवी ने कई पुस्तकें लिखीं जिनमें से अनेक हिंदी में हैं। श्री सिंघवी प्रवासी भारतीयों की उच्च स्तरीय समिति के अध्यक्ष भी रहे।[३] विधि और कूटनीति की कूट एवं कठिन भाषा को सरल हिन्दी में अभिव्यक्त करने में उनका कोई सानी नहीं था। विश्व हिन्दी सम्मेलन" class="mw-redirect">विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजनों में सदा उनकी अग्रणी भूमिका रहती थी। संध्या का सूरज: हिन्दी काव्य, पुनश्च (संस्मरणों का संग्रह), भारत हमारा समय, जैन मंदिर आदि उनकी प्रसिद्ध हिन्दी कृतियाँ हैं। अँग्रेज़ी में टुवर्डस ग्लोबल टुगैदरनेस (Towards Global Togetherness), डेमोक्रेसी एंड द रूल ऑफ़ द लॉ (Democracy and the Rule of the Law), फ्रीडम ऑन ट्रायल (Freedom on trial) आदि उनकी प्रसिद्ध अँग्रेज़ी पुस्तकें हैं। ८ दिसंबर २००८ को भारतीय डाकतार विभाग ने उनके सम्मान में एक डाक-टिकट तथा प्रथम दिवस आवरण प्रकाशित किया है।[४]
श्यामजी कृष्ण वर्मा (4 अक्टूबर, 1857 - 31 मार्च, 1933) क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से भारत की आजादी के संकल्प को गतिशील करने वाले एवं कई क्रान्तिकारियों के प्रेरणास्रोत थे। वे पहले भारतीय थे, जिन्हें ऑक्सफोर्ड से एम.ए. और बैरिस्टर की उपाधियां मिलीं थीं। पुणे में दिए गए उनके संस्कृत के भाषण से प्रभावित होकर मोनियर विलियम्स ने वर्माजी को ऑक्सफोर्ड में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर बना दिया था। उन्होने लन्दन" class="mw-redirect">लन्दन में इण्डिया हाउस (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">इण्डिया हाउस की स्थापना की जो इंगलैण्ड (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">इंगलैण्ड जाकर पढ़ने वालों के परस्पर मिलन एवं विविध विचार-विमर्श का केन्द्र था।
श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म गुजरात">गुजरात के मांडवी गांव में हुआ था। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 1888 में अजमेर" class="mw-redirect">अजमेर में वकालत के दौरान स्वराज">स्वराज के लिए काम करना शुरू कर दिया था। मध्यप्रदेश" class="mw-redirect">मध्यप्रदेश में रतलाम">रतलाम और गुजरात में जूनागढ़">जूनागढ़ में दीवान रहकर उन्होंने जनहित के काम किए। मात्र बीस वर्ष की आयु से ही वे क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे। वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती">स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित थे। 1918 के बर्लिन">बर्लिन और इंग्लैंड में हुए विद्या सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था।
1897 में वे पुनः इंग्लैंड गए। 1905 में लॉर्ड कर्जन">लॉर्ड कर्जन की ज्यादतियों के विरुद्ध संघर्षरत रहे। इसी वर्ष इंग्लैंड से मासिक "द इंडियन सोशिओलॉजिस्ट" प्रकाशित किया, जिसका प्रकाशन बाद में जिनेवा (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">जिनेवा में भी किया गया। इंग्लैंड में रहकर उन्होंने इंडिया हाउस की स्थापना की। भारत लौटने के बाद 1905 में उन्होंने क्रांतिकारी छात्रों को लेकर इंडियन होम रूल सोसायटी (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">इंडियन होम रूल सोसायटी की स्थापना की।
उस वक्त यह संस्था क्रांतिकारी छात्रों के जमावड़े के लिए प्रेरणास्रोत सिद्ध हुई। क्रांतिकारी शहीद मदनलाल ढींगरा">मदनलाल ढींगरा उनके शिष्यों में से थे। उनकी शहादत पर उन्होंने छात्रवृत्ति भी शुरू की थी। विनायक दामोदर सावरकर">वीर सावरकर ने उनके मार्गदर्शन में लेखन कार्य किया था। 31 मार्च, 1933 को जेनेवा के अस्पताल में वे सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गए।
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