हर दिन पावन

हर दिन के भारतीय इतिहास के पन्नो से ....

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7 अक्टूबर 1907 को रिटायर्ड जज पं0 बाँके बिहारी लाल नागर की सुपुत्री रूप में इलाहाबाद में दुर्गा देवी का जन्म हुआ। कुछ समय पश्चात ही पिताजी सन्यासी हो गये और बचपन में ही माँ भी गुजर गयीं। दुर्गा देवी का लालन-पालन उनकी चाची ने किया। जब दुर्गा देवी कक्षा 5वीं की छात्रा थीं तो मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में ही उनका विवाह भगवतीचरण वोहरा से हो गया, जो कि लाहौर के पंडित शिवचरण लाल वोहरा के पुत्र थे। दुर्गा देवी के पति भगवतीचरण वोहरा 1921 के असहयोग आन्दोलन में काफी सक्रिय रहे और लगभग एक ही साथ भगतसिंह, धनवन्तरी और भगवतीचरण ने पढ़ाई बीच में ही छोड़कर देश सेवा में जुट जाने का संकल्प लिया। असहयोग आन्दोलन के दिनों में गाँधी जी से प्रभावित होकर दुर्गा देवी और उनके पति स्वयं खादी के कपड़े पहनते और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करते। असहयोग आन्दोलन जब अपने चरम पर था, ऐसे में चौरी-चौरा काण्ड के बाद अकस्मात इसको वापस ले लिया जाना नौजवान क्रान्तिकारियों को उचित न लगा और वे स्वयं अपना संगठन बनाने की ओर प्रेरित हुये। असहयोग आन्दोलन के बाद भगवतीचरण वोहरा ने लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित नेशनल कालेज से 1923 में बी0ए0 की परीक्षा उतीर्ण की। दुर्गा देवी ने इसी दौरान प्रभाकर की परीक्षा उतीर्ण की।

1924 में तमाम क्रान्तिकारी 'कानपुर सम्मेलन' के बहाने इकट्ठा हुये और भावी क्रान्तिकारी गतिविधियों की योजना बनायी। इसी के फलस्वरूप 1928 में 'हिन्दुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन' का गठन किया गया, जो कि बाद में 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन' में परिवर्तित हो गया। भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, भगवतीचरण वोहरा, बटुकेश्वर दत्त, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी, रोशन सिंह व अशफाक उल्ला खान, शचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे तमाम क्रान्तिकारियों ने इस दौरान अपनी जान हथेली पर रखकर अंग्रेजी सरकार को कड़ी चुनौती दी। भगवतीचरण वोहरा के लगातार क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय होने के साथ-साथ दुर्गा देवी भी पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय रहीं। 3 दिसम्बर 1925 को अपने प्रथम व एकमात्र पुत्र के जन्म पर दुर्गा देवी ने उसका नाम प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के नाम पर शचीन्द्रनाथ वोहरा रखा।

वक्त के साथ दुर्गा देवी क्रान्तिकारियों की लगभग हर गुप्त बैठक का हिस्सा बनती गयीं। इसी दौरान वे तमाम क्रातिकारियों के सम्पर्क में आईं। कभी-कभी जब नौजवान क्रान्तिकारी किसी समस्या का हल नहीं ढूँढ़ पाते थे तो शान्तचित्त होकर उन्हें सुनने वाली दुर्गा देवी कोई नया आइडिया बताती थीं। यही कारण था कि वे क्रान्तिकारियों में बहुत लोकप्रिय और 'दुर्गा भाभी' के नाम से प्रसिद्ध थीं। महिला होने के चलते पुलिस उन पर जल्दी शक नहीं करती थी, सो वे गुप्त सूचनायें एकत्र करने से लेकर गोला-बारूद तथा क्रान्तिकारी साहित्य व पर्चे एक जगह से दूसरी जगह ले जाने हेतु क्रान्तिकारियों की काफी सहायता करती थीं। 1927 में लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक की अध्यक्षता दुर्गा देवी ने ही की। बैठक में अंग्रेज पुलिस अधीक्षक जे0 ए0 स्काट को मारने का जिम्मा वे खुद लेना चाहती थीं, पर संगठन ने उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी।

8 अप्रैल 1929 को सरदार भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ आजादी की गूँज सुनाने के लिए दिल्ली में केन्द्रीय विधान सभा भवन में खाली बेंचों पर बम फेंका और कहा कि -''बधिरों को सुनाने के लिए अत्यधिक कोलाहल करना पड़ता है।'' इस घटना से अंग्रेजी सरकार अन्दर तक हिल गयी और आनन-फानन में 'साण्डर्स हत्याकाण्ड' से भगत सिंह इत्यादि का नाम जोड़कर फांसी की सजा सुना दी। भगत सिंह को फांसी की सजा क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिये बड़ा सदमा थी। अत: क्रान्तिकारियों ने भगत सिंह को छुड़ाने के लिये तमाम प्रयास किये। मई 1930 में इस हेतु सेन्ट्रल जेल लाहौर के पास बहावलपुर मार्ग पर एक घर किराये पर लिया गया, पर इन्हीं प्रयासों के दौरान लाहौर में रावी तट पर 28 मई 1930 को बम का परीक्षण करते समय दुर्गा देवी के पति भगवतीचरण वोहरा आकस्मिक विस्फोट से शहीद हो गये। इस घटना से दुर्गा देवी की जिन्दगी में अंधेरा सा छा गया, पर वे अपने पति और अन्य क्रान्तिकारियों की शहादत को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहती थीं। अत: इससे उबरकर वे पुन: क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय हो गईं।
लाहौर व दिल्ली षडयंत्र मामलों में पुलिस ने पहले से ही दुर्गा देवी के विरुद्ध वारण्ट जारी कर रखा था। ऐसे में जब क्रान्तिकारियों ने बम्बई के गवर्नर मेल्कम हेली को मारने की रणनीति बनायी, तो दुर्गा देवी अग्रिम पंक्ति में रहीं। 9 अक्टूबर 1930 को इस घटनाक्रम में हेली को मारने की रणनीति तो सफल नहीं हुयी पर लैमिग्टन रोड पर पुलिस स्टेशन के सामने अंग्रेज सार्जेन्ट टेलर को दुर्गा देवी ने अवश्य गोली चलाकर घायल कर दिया। क्रान्तिकारी गतिविधियों से पहले से ही परेशान अंग्रेज सरकार ने इस केस में दुर्गा देवी सहित 15 लोगों के नाम वारण्ट जारी कर दिया, जिसमें 12 लोग गिरफ्तार हुये पर दुर्गा देवी, सुखदेव लाल व पृथ्वीसिंह फरार हो गये। अन्तत: अंग्रेजी सरकार ने मुख्य अभियुक्तों के पकड़ में न आने के कारण 4 मई 1931 को यह मुकदमा ही उठा लिया। मुकदमा उठते ही दुर्गा देवी पुन: सक्रिय हो गयीं और शायद अंग्रेजी सरकार को भी इसी का इन्तजार था। अन्तत: 12 सितम्बर 1931 को लाहौर में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया, पर उस समय तक लाहौर व दिल्ली षड्यंत्र मामले खत्म हो चुके थे और लैमिग्टन रोड केस भी उठाया जा चुका था, अत: कोई ठोस आधार न मिलने पर 15 दिन बाद मजिस्ट्रेट ने उन्हें रिहा करने के आदेश दे दिये। अंग्रेजी सरकार चूँकि दुर्गा देवी की क्रान्तिकारी गतिविधियों से वाकिफ थी, अत: उनकी गतिविधियों को निष्क्रिय करने के लिये रिहाई के तत्काल बाद उन्हें 6 माह और पुन: 6 माह हेतु नजरबंद कर दिया। दिसम्बर 1932 में अंग्रेजी सरकार ने पुन: उन्हें 3 साल तक लाहौर नगर की सीमा में नजरबंद रखा।

तीन साल की लम्बी नजर बन्दी के बाद जब दुर्गा देवी रिहा हुयीं तो 1936 में दिल्ली से सटे गाजियाबाद के प्यारेलाल गर्ल्स स्कूल में लगभग एक वर्ष तक अध्यापक की नौकरी की। 1937 में वे जबरदस्त रूप से बीमार पड़ी और दिल्ली की हरिजन बस्ती में स्थित सैनीटोरियम में उन्होंने अपनी बीमारी का इलाज कराया। उस समय तक विभिन्न प्रान्तों में कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी और इसी दौरान 1937 में ही दुर्गा देवी ने भी कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर राजनीति में अपनी सक्रियता पुन: आरम्भ की। अंग्रेज अफसर टेलर को मारने के बाद फरार रहने के दौरान ही उनकी मुलाकात महात्मा गाँधी से हो चुकी थी। 1937 में वे प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी दिल्ली की अध्यक्षा चुनी गयीं एवं 1938 में कांग्रेस द्वारा आयोजित हड़ताल में भाग लेने के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। 1938 के अन्त में उन्होंने अपना ठिकाना लखनऊ में बनाया और अपनी कांग्रेस सदस्यता उत्तर प्रदेश स्थानान्तरित कराकर यहाँ सक्रिय हुयीं। सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में आयोजित जनवरी 1939 के त्रिपुरी (मध्यप्रदेश) के कांग्रेस अधिवेशन में दुर्गा देवी ने पूर्वांचल स्थित आजमगढ़ जनपद की प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया।

दुर्गा देवी का झुकाव राजनीति के साथ-साथ समाज सेवा और अध्यापन की ओर भी था। 1939 में उन्होंने अड्यार, मद्रास में मांटेसरी शिक्षा पद्धति का प्रशिक्षण ग्रहण किया और लखनऊ आकर जुलाई 1940 में शहर के प्रथम मांटेसरी स्कूल की स्थापना की, जो वर्तमान में इण्टर कालेज के रूप में तब्दील हो चुका है। मांटेसरी स्कूल, लखनऊ की प्रबन्ध समिति में तो आचार्य नरेन्द्र देव, रफी अहमद किदवई व चन्द्रभानु गुप्ता जैसे दिग्गज शामिल रहे। 1940 के बाद दुर्गा देवी ने राजनीति से किनारा कर लिया पर समाज सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में उनके योगदान को काफी सराहा गया।

दुर्गा देवी ने सदैव से क्रान्तिकारियों के साथ कार्य किया था और उनके पति की दर्दनाक मौत भी एक क्रान्तिकारी गतिविधि का ही परिणाम थी। क्रान्तिकारियों के तेवरों से परे उनके दुख-दर्द और कठिनाइयों को नजदीक से देखने व महसूस करने वाली दुर्गा देवी ने जीवन के अन्तिम वर्षों में अपने निवास को "शहीद स्मारक शोध केन्द्र" में तब्दील कर दिया। इस केन्द्र में उन शहीदों के चित्र, विवरण व साहित्य मौजूद हैं, जिन्होंने राष्ट्रभक्ति का परिचय देते हुये या तो अपने को कुर्बान कर दिया अथवा राष्ट्रभक्ति के समक्ष अपने हितों को तिलांजलि दे दी। एक तरह से दुर्गा देवी की यह शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि थी तो आगामी पीढ़ियों को आजादी की यादों से जोड़ने का सत्साहस भरा जुनून भी। पारिवारिक गतिविधियों से लेकर क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, शिक्षाविद् और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में आजीवन सक्रिय दुर्गा देवी 92 साल की आयु में 14 अक्टूबर 1999 को इस संसार को अलविदा कह गयीं।

दुर्गा देवी उन विरले लोगों में से थीं जिन्होंने गाँधी जी के दौर से लेकर क्रान्तिकारी गतिविधियों तक को नजदीक से देखा, पराधीन भारत को स्वाधीन होते देखा, राष्ट्र की प्रगति व विकास को स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के दौर के साथ देखा........ आज दुर्गा देवी हमारे बीच नहीं हैं, पर वर्ष 2007-08 उनकी जन्म-शताब्दी का वर्ष है और हमें उनके सपनों, मूल्यों और जज्बातों का अहसास करा रहा है। आज देश के विभिन्न क्षेत्रों में तमाम महिलायें अपनी गतिविधियों से नाम कमा रही हैं, पर दुर्गा देवी ने तो उस दौर में अलख जगायी जब महिलाओं की भूमिका प्राय: घर की चारदीवारियों तक ही सीमित थी। यह राष्ट्र के लिये गौरव का विषय है कि वर्ष 2007-08 दुर्गा देवी के साथ-साथ भगत सिंह और सुखदेव का भी जन्म-शताब्दी वर्ष है। बहुत कम ही लोगों को पता होगा कि एक ही वर्ष की विभिन्न तिथियों में जन्मतिथि पड़ने के बावजूद भगतसिंह अपना जन्मदिन दुर्गा देवी के जन्मदिन पर उन्हीं के साथ मनाते थे और उनके पति भगवतीचरण वोहरा सहित तमाम क्रान्तिकारी इस अवसर पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते थे। ऐसे वीरों की शहादत को शत्-शत् नमन.....

Veteran Sangh Pracharak, Manikchand Vajpayee passed away in Gwalior on December 27. He was 87. He had not been keeping well for some time. He breathed his last at 4.30 a.m. at Gwalior Sangh Karyalaya. He was cremated in Gwalior on December 28. Former Prime Minister Shri Atal Behari Vajpayee flown from Mumbai to Gwalior to participate in the cremation. A large number of Sangh Swayamsevaks and Prant adhikaris paid tribute to him at the Gwalior Sangh Karyalaya and later at the cremation ground. Manikchand Vajpayee, who was honoured with various awards, was born on October 7, 1919, at Bateshwar in Agra. He became a Sangh Pracharak in 1944 and in the initial nine years he worked in the Bhind area of Madhya Pradesh. He was instrumental in setting-up of a college in Bhind. He fought against Emergency and had been in jail for over 20 months. After the death of his wife in 1985, he again returned as Sangh Pracharak in the same year. He had also worked as organising secretary of Madhya Pradesh Jana Sangh from 1951 to 1954. He worked as Prant Prachar Pramukh of Madhya Bharat Prant and also worked for Swadeshi Jagaran Manch as Kshetra Sanyojak in Madhya Kshetra. Manikchand Vajpayee earned a name in Hindi journalism while working as the editor of the Indore edition of Swadesh. He wrote a number of articles that became very popular. The prominent books edited and compiled by him include Aapatkalin Sangharshgatha, Pratham Agnipariksha, Bharatiya Nari: Vivekanand ki Drishti Mein, Kashmir ka Kadava Sach, Pope ka Kasata Shikanja, etc. His book, Jyoti Jala Nij Pran ki became very popular. He also authored Madhya Bharat ki Sangh Gatha.

Samrat Hem Chandra Vikramaditya, also known as Hem Chandra Bhargava or Hemu Vikramaditya or simply Hemu (Hindi: सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य) (1501-1556) was a Hindu Emperor of India during the 1500s. He fought Afghan rebels[1][2] across North India from the Punjab to Bengal[3] and the Mughal forces of Akbar and Humayun in Agra and Delhi,[4] winning 22 battles without a single setback.[5][6][7][8] He assumed the title of Vikramaditya after acceding to the throne of Delhi[9] This was one of the crucial periods in Indian history, when the Mughals and Afghans were desperately vying for power. The son of a food seller, and himself a vendor of saltpetre at Rewari,[10] he rose to become Chief of Army and Prime Minister[11][12] under the command of Adil Shah Suri of the Suri Dynasty. He acceded to the throne of Delhi on October 7, 1556.[13] His Rajyabhishek or coronation was at Purana Quila in Delhi, where he was bestowed the title of Samrat.[9] Hemu re-established the Hindu Kingdom (albeit for a short duration) after over 350 years.[13] Hemu struck coins, bearing his title.[14]

Early life

Hemu was born at Machheri village of Alwar District in Rajasthan in the year 1501.[15] His father Rai Puran Das, a Brahmin,[16] was engaged in Purohiti,[15] the performing of Hindu religious ceremonies as a profession. However, due to persecution of Hindus, who performed religious ceremonies, by Mughals, Rai Puran Das could not make both ends meet as a Purohit, therefore he gave up Purohiti and moved to Qutabpur (now Hemu Nagar) in Rewari in Mewat,what is present day Haryana. Hemu's father started trading (breaking the caste barrier) in salt in Qutabpur, and Hemu was brought up and educated there.[17]

Apart from learning Sanskrit and Hindi, he was educated in Persian, Arabic and Arithmetic.[18] During his childhood, he was fond of exercise and Kushti (Wrestling) and while crushing salt in an Imam Dasta (an iron pot and hammer), he would monitor his strength.[17] He trained in horse-riding at his friend Sehdev's village. His friend Sehdev was a Rajput[17] and he participated in all the battles which Hemu fought later,[17] except the Second Battle of Panipat. Hemu was brought up in religious environment; his father was a member of Vallabh Sampradai of Vrindavan and visited various Teerth (religious sites)[18] as far as Sindh in present Pakistan।

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लक्ष्मीमल्ल सिंघवी (या लक्ष्मीमल सिंघवी) ( ९ नवंबर">९ नवंबर १९३१">१९३१- ६ अक्तूबर">६ अक्तूबर २००७">२००७) ख्यातिलब्ध न्यायविद, संविधान विशेषज्ञ, कवि, भाषाविद एवं लेखक थे। उनका जन्म भारत">भारत के राजस्थान">राजस्थान प्रांत में स्थित जोधपुर जिला">जोधपुर नगर में हुआ। १९६२ से १९६७ तक तीसरी लोक सभा के सदस्य श्री सिंघवी ने १९७२ से ७७ तक राजस्थान के एडवोकेट जनरल तथा अनेक वर्षों तक यूके में भारत के राजदूत पद पर कार्य किया। उन्हें १९९८">१९९८ में पद्म भूषण">पद्म भूषण से अलंकृत किया गया तथा १९९९ में वे राज्य सभा के सदस्य भी चुने गए। डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी ने नेपाल">नेपाल, बांग्लादेश">बांग्लादेश और दक्षिण अफ्रीका">दक्षिण अफ्रीका के संविधान रचे। उन्हें भारत में अनेक लोकपाल, लोकायुक्त संस्थाओं का जनक माना जाता है। डॉ. सिंघवी संयुक्त राष्ट्र संघ मानवाधिकार अधिवेशन और राष्ट्रकुल (कॉमनवेल्थ) विधिक सहायता महासम्मेलन के अध्यक्ष, विशेषज्ञ रहे। वे ब्रिटेन के सफलतम उच्चायुक्त माने जाते हैं। वे सर्वोच्च न्यायालय" class="mw-redirect">सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के चार बार अध्यक्ष रहे। उन्होंने विधि दिवस का शुभारंभ किया।[१]

डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी ने हिंदी के वैश्वीकरण और हिंदी के उन्नयन की दिशा में सजग, सक्रिय और ईमानदार प्रयास किए। भारतीय राजदूत के रूप में उन्होंने ब्रिटेन में भारतीयता को पुष्पित करने का प्रयास तो किया ही, अपने देश की भाषा के माध्यम से न केवल प्रवासियों अपितु विदेशियों को भी भारतीयता से जोड़ने की कोशिश की। वे संस्कृतियों के मध्य सेतु की तरह अडिग और सदा सक्रिय रहे। वे भारतीय संस्कृति के राजदूत, ब्रिटेन में हिन्दी के प्रणेता और हिंदी-भाषियों के लिए प्रेरणा स्रोत थे। विश्व भर में फैले भारत वंशियों के लिए प्रवासी भारतीय दिवस">प्रवासी भारतीय दिवस मनाने की संकल्पना डॉ. सिंघवी की ही थी। वे साहित्य अमृत के संपादक रहे और अपने संपादन काल में उन्होने श्री विद्यानिवास मिश्र की स्वस्थ साहित्यिक परंपरा को गति प्रदान की। भारतीय ज्ञानपीठ">भारतीय ज्ञानपीठ को भी श्री सिंघवी की सेवाएँ सदैव स्मरण रहेंगी।[२]

भारतीय डायसपोरा की अनेक संस्थाओं के अध्यक्ष श्री सिंघवी ने अनेक पुस्तकों की रचना भी की है। वे कई कला तथा सांस्कृतिक संगठनों के संरक्षक भी थे। जैन इतिहास और संस्कृति के जानकार के रूप में मशहूर श्री सिंघवी ने कई पुस्तकें लिखीं जिनमें से अनेक हिंदी में हैं। श्री सिंघवी प्रवासी भारतीयों की उच्च स्तरीय समिति के अध्यक्ष भी रहे।[३] विधि और कूटनीति की कूट एवं कठिन भाषा को सरल हिन्दी में अभिव्यक्त करने में उनका कोई सानी नहीं था। विश्व हिन्दी सम्मेलन" class="mw-redirect">विश्व हिन्दी सम्मेलन के आयोजनों में सदा उनकी अग्रणी भूमिका रहती थी। संध्या का सूरज: हिन्दी काव्य, पुनश्च (संस्मरणों का संग्रह), भारत हमारा समय, जैन मंदिर आदि उनकी प्रसिद्ध हिन्दी कृतियाँ हैं। अँग्रेज़ी में टुवर्डस ग्लोबल टुगैदरनेस (Towards Global Togetherness), डेमोक्रेसी एंड द रूल ऑफ़ द लॉ (Democracy and the Rule of the Law), फ्रीडम ऑन ट्रायल (Freedom on trial) आदि उनकी प्रसिद्ध अँग्रेज़ी पुस्तकें हैं। ८ दिसंबर २००८ को भारतीय डाकतार विभाग ने उनके सम्मान में एक डाक-टिकट तथा प्रथम दिवस आवरण प्रकाशित किया है।[४]

संदर्भ

  1. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी का निधन (एचटीएमएल)। दैनिक भास्कर। अभिगमन तिथि: २ अप्रैल">२ अप्रैल, २००९">२००९
  2. अपनी बात (एचटीएम)। सृजनगाथा। अभिगमन तिथि: २ अप्रैल">२ अप्रैल, २००९">२००९
  3. हिन्दी का प्रवासी साहित्य (पीएचपी)। ईविश्वा। अभिगमन तिथि: २ अप्रैल">२ अप्रैल, २००९">२००९
  4. इंडिया पोस्ट (अँग्रेज़ी) (एचटीएमएल)। २००८ के डाकटिकट। अभिगमन तिथि: २ अप्रैल">२ अप्रैल, २००९">२००९

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में देशप्रेम से परिपूर्ण अनेक गीत गाये जाते हैं। उनका उद्देश्य होता है, स्वयंसेवक को देश एवं समाज के साथ एकात्म करना। इनमें से अधिकांश के लेखक कौन होते हैं, प्राय: इसका पता नहीं लगता। ऐसा ही लोकप्रिय गीत है, पूज्य माँ की अर्चना का, एक छोटा उपकरण हूँ, इसके लेखक थे। मध्य भारत के वरिष्ठ प्रचारक दत्ता जी उनगाँवकर, जिन्होंने अन्तिम साँस तक संघ- कार्य करने का व्रत निभाया।
दत्ताजी का जन्म १९२४ में तराना, जिला उज्जैन में हुआ था। उनके पिता श्री कृष्णराव का डाक विभाग में सेवारत होने के कारण स्थानान्तरण होता रहता था। अत: दत्ताजी की शिक्षा भनपुर, इन्दौर, अलीराजपुर, झाबुआ तथा उज्जैन में हुई। उज्जैन में उनका एक मित्र शंकर शाखा में जाता था।
एक बार भैया जी दाणी का प्रवास वहाँ हुआ। शंकर अपने साथ दत्ताजी को भी ले गया। दत्ताजी उस दिन बैठक में गये, तो फिर संघ के ही होकर रह गये। वे क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे, पर फिर उन्हें शाखा का ऐसा चस्का लगा कि वे सब भूल गये।
उनके मन में सरसंघचालक श्री गुरूजी के प्रति अत्यधिक निष्ठा थी। इण्टर की परीक्षा के दिनों में ही इन्दौर में उनका प्रवास था। उसी दिन दत्ताजी की प्रायोगिक परीक्षा थी। शाम को ४.३० पर गाड़ी थी। दत्ताजी ने ४.३० बजे तक जितना काम हो सकता था। किया और फिर गाड़ी पकड़ ली।
इसके बाद वे बी.एस - सी करने कानपुर आ गये। वहाँ उनके पेट में एक गाँठ बन गयी। बड़ें ऑपरेशन से वे ठीक तो हो गयें, पर याारीरिक रूप से सदा कमजोर ही रहे। प्रथम और द्वितीय वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग मो उन्होनें किसी प्रकार किये, पर तृतीय वर्ष का वर्गा नहीं किया।
१९४७ में उन्होनें प्रचारक बनने का निर्णय लिया। साइकिल चलाने की उन्हें मनाहीं थी। अत: वे पैदल ही अपने क्षेत्र में घूमते थे। वे छात्रावास को केन्द्र बनाकर काम करते थे। जब वे मध्य प्रदेश में शाजापुर के जिला प्रचारक बने, तो छात्रों के माध्यम से ही उस जिले में १०० शाखएँ हो गयीं।
१९४८ में प्रतिबंध के समय वे आगरा में सत्याग्रह कर जेल गये और वहाँ से लौटकर फिर संघ कार्य में लग गये। १९५१ में उन्हें गुना जिला प्रचारक के साथ वहाँ से निकलने वाले देशभक्त नामक समाचार पत्र का काम देखने को कहा गया। उन्हें इसका अनुभव नहीं था। पर संघ का आदेश मानकर उन्होनें सम्पादन, प्रकाशन और प्रसार जैसे सब काम सीखे। काम करते हुए रात के बारह बज जाते थे। भोजन एवं आवास का कोई उकचत प्रबन्ध नहीं था। इसके बाद भी किसी ने उन्हें उदास या निराश नहीं देखा।
प्रचारक जीवन में अनेक स्थानों पर रहकर उन्होनें नगर, तहसील, जिला, विभाग प्रचारक, प्रान्त बौद्धिक प्रमुख, प्रान्त एवं क्षेत्र व्यवस्था प्रमुख जैसे दायित्व निभाये। अनेक रोगों से घिरे होने के कारण ८४ वर्ष की सुदीर्घ आयु में छह अक्टूबर, २००६ को उनका देहान्त हो गया। अपने कार्य और निष्ठा से उन्होनें स्वलिखित गीत की निम्र पक्ंितयों को साकार किया।
ंआरती भी हो रही है, गीत बनकर क्या करूँगा
पुष्प माला चढ़ रही है, फूल बनकर क्या करँगा
मालिका का एक तन्तुक, गीत का मैं एक स्वर हँू
पूज्य माँ की अर्चना का एक छोटा उपकरण हँू।

श्यामजी कृष्ण वर्मा (4 अक्टूबर, 1857 - 31 मार्च, 1933) क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से भारत की आजादी के संकल्प को गतिशील करने वाले एवं कई क्रान्तिकारियों के प्रेरणास्रोत थे। वे पहले भारतीय थे, जिन्हें ऑक्सफोर्ड से एम.ए. और बैरिस्टर की उपाधियां मिलीं थीं। पुणे में दिए गए उनके संस्कृत के भाषण से प्रभावित होकर मोनियर विलियम्स ने वर्माजी को ऑक्सफोर्ड में संस्कृत का सहायक प्रोफेसर बना दिया था। उन्होने लन्दन" class="mw-redirect">लन्दन में इण्डिया हाउस (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">इण्डिया हाउस की स्थापना की जो इंगलैण्ड (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">इंगलैण्ड जाकर पढ़ने वालों के परस्पर मिलन एवं विविध विचार-विमर्श का केन्द्र था।

जीवन वृत्त

श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म गुजरात">गुजरात के मांडवी गांव में हुआ था। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 1888 में अजमेर" class="mw-redirect">अजमेर में वकालत के दौरान स्वराज">स्वराज के लिए काम करना शुरू कर दिया था। मध्यप्रदेश" class="mw-redirect">मध्यप्रदेश में रतलाम">रतलाम और गुजरात में जूनागढ़">जूनागढ़ में दीवान रहकर उन्होंने जनहित के काम किए। मात्र बीस वर्ष की आयु से ही वे क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे थे। वे लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और स्वामी दयानंद सरस्वती">स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रेरित थे। 1918 के बर्लिन">बर्लिन और इंग्लैंड में हुए विद्या सम्मेलनों में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया था।

1897 में वे पुनः इंग्लैंड गए। 1905 में लॉर्ड कर्जन">लॉर्ड कर्जन की ज्यादतियों के विरुद्ध संघर्षरत रहे। इसी वर्ष इंग्लैंड से मासिक "द इंडियन सोशिओलॉजिस्ट" प्रकाशित किया, जिसका प्रकाशन बाद में जिनेवा (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">जिनेवा में भी किया गया। इंग्लैंड में रहकर उन्होंने इंडिया हाउस की स्थापना की। भारत लौटने के बाद 1905 में उन्होंने क्रांतिकारी छात्रों को लेकर इंडियन होम रूल सोसायटी (पृष्ठ मौजूद नहीं है)">इंडियन होम रूल सोसायटी की स्थापना की।

उस वक्त यह संस्था क्रांतिकारी छात्रों के जमावड़े के लिए प्रेरणास्रोत सिद्ध हुई। क्रांतिकारी शहीद मदनलाल ढींगरा">मदनलाल ढींगरा उनके शिष्यों में से थे। उनकी शहादत पर उन्होंने छात्रवृत्ति भी शुरू की थी। विनायक दामोदर सावरकर">वीर सावरकर ने उनके मार्गदर्शन में लेखन कार्य किया था। 31 मार्च, 1933 को जेनेवा के अस्पताल में वे सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गए।

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